शिवरात्रि कथा - ऋषि भृगु को सीख

 

महर्षि भृगु (चित्र :गूगल से साभार)


           ऋषि भृगु सप्तऋषियों में से एक थे और वे भगवान शिव के परम भक्त थे। जब भगवान शिव योग का प्रसार और सृष्टि की व्याख्या सप्तऋषियों से कर रहे थे तो यह शिक्षादायी घटना घटी। यह कार्यक्रम कांति सरोवर के किनारे हो रही थी जिसे कृपा की झील के नाम से भी जाना जाता है। प्रतिदिन की तरह ऋषि भृगु सुबह जल्दी आये और शिव की प्रदक्षिणा करने के लिए उद्यत हुए। उस समय माता पार्वती भी शिवजी के समीप बैठी थीं। भृगु ने दोनों के बीच से हो कर परिक्रमा प्रारम्भ की क्योंकि वे सिर्फ शिव की प्रदक्षिणा करना चाहते थे, पार्वती की नहीं। इससे शिव तो प्रसन्न हुए पर पार्वती नहीं। उन्हें यह पसंद नहीं आया। उन्होंने शिव जी की ओर देखा। 

           शिव जी ने कहा थोड़ा और समीप हो जाओ, वह परिक्रमा करेगा। माता पार्वती और समीप आ गयीं। भृगु ने जब देखा कि उनके बीच से निकलने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है तो उन्होंने एक चूहे का रूप धारण कर पार्वती को बाहर रखते हुए अकेले शिव की परिक्रमा की। इससे पार्वती क्रोधित हो गयीं। तब भगवान ने उन्हें अपनी जंघा पर बैठा लिया। 



               अब ऋषि भृगु ने एक छोटे पंछी का रूप धारण कर सिर्फ शिव की परिक्रमा की। अब तो माता पार्वती का क्रोध और भी बढ़ गया। यह देख कर शिव जी ने पार्वती को खींच कर स्वयं में मिला लिया और उन्हें अपना आधा हिस्सा बना लिया। अब उनका आधा हिस्सा शिव का था और आधा पार्वती का। यानि वे अर्धनारीश्वर बन गए। 

           यह देख कर भृगु ने स्वयं को एक मधुमक्खी बना लिया और शिवजी के दाहिनी टांग की परिक्रमा कर दी। भृगु का बचकाना भक्तिभाव देख कर शिव तो प्रसन्न हुए पर वे नहीं चाहते थे कि भृगु भक्ति में इतना खो जायें कि वो प्रकृति के परम स्वाभाव को ही न समझ पायें। अतः वे सिद्धासन बैठ गए। 

          अब भृगु ऋषि के पास कोई चारा ही न बचा था कि वे सिर्फ शिव की या उनके शरीर के किसी हिस्से की ही परिक्रमा कर सकें। अगर उन्हें परिक्रमा करनी थी तो दोनों सिद्धांतों, स्त्रैण और पौरुष दोनों की ही करनी पड़ेगी। ऋषि भृगु को सीख मिली कि पुरुष और प्रकृति में सामंजस्य रखना भी योग का भाग है। योग मात्र व्यायाम नहीं है जिससे आप स्वस्थ होते हैं बल्कि यह मानव जाति के परम कल्याण के बारे में है जिसमें जीवन का प्रत्येक पहलू शामिल होता है। यह एक ऐसे तंत्र के बारे में है जिसमें आप अपने पहले से मौजूद तंत्र - यथा मन, शरीर, भावनायें और ऊर्जा को परमात्मा तक जाने वाली सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल कर सकें। यह एक ऐसी पद्धति है जिससे आप परम प्रकृति के लिए स्वयं को पहले कदम के रूप में तैयार कर सकते हैं। 

                                                      ----सद्गुरु के प्रवचनों से साभार  


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